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एक राष्ट्र, एक चुनाव में सबसे बड़ी दिक्‍क्‍त पार्टियों और नेताओं के बीच आम राय बनाने की है

एक देश एक चुनाव को लेकर सरकार पूरी कोशिश कर रही है। हालांकि इसके लिए आम राय बनाना कोई आसान काम भी नहीं है। कहा जा सकता है कि जहां जीएसटी एक समान लागू हो सकता है वहां पर ये क्‍यों नहीं।


पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संविधान दिवस के अवसर पर 80वें अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन के समापन सत्र को संबोधित करते हुए पुन: लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ संपन्न कराने की बात दोहराई। विगत में विभिन्न अवसरों पर एक राष्ट्र, एक चुनाव का यह मुद्दा चर्चा का विषय बनता रहा है। वैसे इस पर चुनाव आयोग, नीति आयोग और संविधान समीक्षा आयोग भी विचार कर चुके हैं। विधि आयोग ने भी अपनी 170वीं रिपोर्ट में इसका समर्थन किया था। भारत एक बड़ा देश है, जहां कभी आम चुनाव तो कभी किसी विधानसभा के चुनाव वर्ष भर चलते रहते हैं। ऐसे में एक बड़े तबके द्वारा लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की मांग की जाती रही है। वर्तमान भारतीय चुनावी प्रक्रिया न केवल थकाऊ है, बल्कि बहुत खर्चीली भी है। चुनावी खर्च पर सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की रिपोर्ट के अनुसार, बीते 20 वर्षो में 1998 से 2019 तक हुए लोकसभा चुनावों में हुआ व्यय छह गुना बढ़ा है। 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रत्येक लोकसभा सीट पर लगभग 100 करोड़ रुपये खर्च किए गए। 17वीं लोकसभा के चुनाव में 55,000 से 60,000 हजार करोड़ रुपये के बीच खर्च हुए, जिसमें 40 फीसद उम्मीदवारों और 35 फीसद राजनीतिक दलों द्वारा खर्च किया गया।


चुनाव आयोग का मानना है कि एक राज्य के विधानसभा के चुनाव में औसतन 4500 करोड़ रुपये का खर्च बैठता है। चुनावी खर्च में लगातार हो रही वृद्धि देश की आíथक सेहत के लिए ठीक नहीं है। ऐसे में एक साथ चुनाव कराने से चुनावी खर्च को कम किया जा सकता है। अगर एक साथ चुनाव हों तो मोटे तौर पर सरकार का यह काम एक ही खर्च में हो जाएगा और उसे अलग से सुरक्षा संबंधी उपाय भी नहीं करने होंगे। इससे संसाधनों की काफी बचत होगी। साथ ही सुरक्षा बलों को भी बार-बार चुनावी कार्य में इस्तेमाल करने के बजाय बेहतर प्रबंधन करके जहां उनकी अधिक जरूरत हो, वहां उनका इस्तेमाल किया जा सकेगा।


भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में लगातार चुनावों के कारण बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू करनी पड़ती है। इसके कारण सरकार ऐसी कोई नई घोषणा नहीं कर सकती, जिसके बारे में चुनाव आयोग को लगता है कि उससे मतदाताओं के फैसले पर असर पड़ सकता है। इसकी वजह से सरकार जरूरी नीतिगत निर्णय नहीं ले पाती है और विभिन्न योजनाओं को भी लागू करने में समस्या आती है। इसके कारण विकास कार्य प्रभावित होते हैं। बार-बार चुनाव कराने से शिक्षा क्षेत्र के साथ-साथ अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों के काम-काज भी प्रभावित होते हैं, क्योंकि बड़ी संख्या में शिक्षकों सहित दूसरे सरकारी कर्मचारी चुनाव प्रक्रिया में शामिल होते हैं। अगर एक साथ लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव होते हैं तो सरकारी मशीनरी की कार्यक्षमता बढ़ेगी तथा आमजन को लाभ होगा।


जातिवाद, संप्रदायवाद एवं वोटरों की खरीद-फरोख्त को दूर करने में भी इससे मदद मिलेगी। उम्मीद है कि एक देश, एक चुनाव व्यवस्था भ्रष्टाचार को रोकने और एक अनुकूल सामाजिक-आíथक वातावरण के निर्माण का साधन भी बन सकती है। यद्यपि चुनावों के दौरान होने वाली अवैध गतिविधियों पर अंकुश लगाने में चुनाव आयोग की कोशिशें प्रशंसनीय हैं, फिर भी चुनावों में काले धन का जमकर इस्तेमाल होता है। अत: एक साथ चुनाव संपन्न कराए गए तो भ्रष्टाचार और काले धन पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है। इसका एक फायदा यह भी है कि इससे राजनीतिक स्थिरता आएगी, क्योंकि अगर किसी राज्य में कार्यकाल खत्म होने के पहले भी कोई सरकार गिर जाती है या फिर चुनाव के बाद किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता तो वहां आनन-फानन में नहीं, बल्कि पहले से तय समय पर ही चुनाव होगा।

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