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बदलते दौर में भारत को भी डिजिटल शिक्षा नीति की दरकार, अब ये जरूरत भी है और मांग भी


तकनीक के बदलते दौर और वर्तमान महामारी जनित कारणों को देखते हुए स्कूली शिक्षा के संदर्भ में एक नई डिजिटल शिक्षा नीति के बारे में भी हमें सोचना चाहिए। अब ये समय की मांग भी है और हमारी जरूरत भी बन गई है।

कोरोना संकट के दौरान अचानक ही स्कूल बंद करने पड़े और जब लगा कि यह लंबे समय तक चलने वाला गतिरोध है तो आनन-फानन घर बैठे ही बच्चों को पढ़ाने की जुगत लगने लगी। बंद स्कूलों के साथ पाठ्यक्रम पूरा करने की इस दौड़ में करीब तीन सौ दिनों में कई बच्चे बहुत पीछे छूट गए। इससे शिक्षा-तंत्र पर क्या असर हुआ?

जब राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 का दस्तावेज सामने आया तो स्कूली शिक्षा को लेकर भारत में एक नई बहस खड़ी हुई, क्या डिजिटल प्लेटफार्म की कक्षाएं, वास्तविक क्लासरूम का विकल्प हो सकती हैं? नई नीति के दस्तावेज में भी मोबाइल एप, डिजिटल शिक्षा, मूल्यांकन में अधिक से अधिक इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के इस्तेमाल पर जोर दिया गया है। लेकिन यह भी एक कटु वास्तविकता है कि अभी हमारे पास बच्चों के लायक न तो डिजिटल पठन सामग्री है और न ही शिक्षकों का इस तरह का प्रशिक्षण और न ही हर बच्चे तक पर्याप्त तकनीकी साधन उपलब्ध है। तमाम संबंधित कारणों को देखते हुए डिजिटल शिक्षा के लिए नई नीति बनाना जरूरी है।


एक बात तो जान लें कि किसी डिजिटल प्लेटफार्म पर कुछ बच्चों को संबोधित करना या फिर पहले से तैयार वीडियो का प्रदर्शन डिजिटल शिक्षा नहीं है। असर के सर्वे की रिपोर्ट में साफ हुआ है कि स्कूल जाने वाले बच्चों के 30 फीसद के पास तो स्मार्टफोन जैसी सुविधा है ही नहीं। फिर कमजोर नेटवर्क, डिजिटल माध्यम पर शिक्षण की जानकारी रखने वाले शिक्षकों व अन्य स्थानीय कारकों को जोड़ें तो साफ हो जाएगा कि लगभग आधे स्कूली बच्चे विगत करीब दस माह से पठन-पाठन से दूर हैं।


यह संकट केवल इतना ही नहीं है। इससे अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हुई है। बड़ी संख्या में बच्चे जीविकोपार्जन या अन्य कारणों से शिक्षा से दूर हो गए। सरकारी रिकार्ड के मुताबिक अभी हमारे देश में ऐसे 60 लाख बच्चे हैं जो स्कूल नहीं जाते। ऐसे इसमें कोई शक नहीं कि पढ़ाने का यह नया अंदाज फिलहाल शहरी, सक्षम आíथक स्थिति वाले और अधिकांश निजी विद्यालय के बच्चों तक ही सीमित है, पर गौर करें तो यह भविष्य के विद्यालय की परिकल्पना भी है।


दूरस्थ अंचलों तक शाला भवन बनवाने, वहां शिक्षकों की नियमित उपस्थिति सुनिश्चित करने, स्कूल भवनों में मूलभूत सुविधाएं देने, हमारे देश के विषम मौसमी हालातों में स्कूल संचालित करने जैसी कई चुनौतियों को जोड़ लें तो एक बच्चे तक गैजेट पहुंचाने और उसकी मनमर्जी की जगह पर बैठ कर सीखने की प्रक्रिया न केवल प्रभावी प्रतीत होता है, बल्कि आíथक रूप से भी कम खर्चीला है। जिस देश में मोबाइल कनेक्शन की संख्या देश की कुल आबादी के लगभग करीब पहुंच रही हो, जहां 12 साल के बच्चों के लिए मोबाइल स्कूली-बस्ते की तरह अनिवार्य बनता जा रहा है, वहां बच्चों को डिजिटल साक्षरता, जिज्ञासा, सृजनशीलता, पहल और सामाजिक कौशलों की जरूरत पर भी जोर दिया जाना चाहिए।


हालांकि यह भी सच है कि स्कूल में बच्चों को मोबाइल का इस्तेमाल शिक्षा में बाधक माना जाता है, परिवार भी बच्चों को अनचाहे तरीके से कड़ी निगरानी (जहां तक संभव हो) के बीच मोबाइल थमाते हैं। वास्तविकता यह है कि सस्ते डाटा के साथ बढ़ रहे मोबाइल का सही तरीके से इस्तेमाल खुद को शिक्षक कहने वालों के लिए एक खतरा सरीखा है। भारत में शिक्षा का अधिकार व कई अन्य कानूनों के जरिये बच्चों के स्कूल में पंजीयन का आंकड़ा और साक्षरता दर में वृद्धि निश्चित ही उत्साहवर्धक है, लेकिन जब गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात आती है तो यह आंकड़ा हमें शर्माने को मजबूर करता है कि हमारे यहां आज भी 10 लाख शिक्षकों की कमी है।


दुखद है कि जब डिजिटल गैजेट्स हमारे लेन-देन, व्यापार, परिवहन, यहां तक कि अपनी पहचान के लिए अनिवार्य होते जा रहे हैं, हम बच्चों को वही घिसे-पिटे विषय न केवल पढ़ा रहे हैं, बल्कि रटवा भी रहे हैं। मोबाइल का इस्तेमाल बालपन से ही सही तरीके से न सिखा पाने का यह कुपरिणाम है कि बच्चे पोर्न और अपराध देखने के लिए इस ज्ञान के भंडार का इस्तेमाल कर रहे हैं। यूट्यूब ऐसे वीडियो से पटी पड़ी है जिनमें बहुत कुछ बच्चों के लिहाज से सही नहीं है।


काश अपने पाठ के एक हिस्से से संबंधित फिल्म बनाने जैसा कोई अभ्यास इन बच्चों के सामने होता तो वे काले अक्षरों में छपी अपनी पाठ्य पुस्तक को दृश्य-श्रव्य से सहजता से प्रस्तुत करते। हमारे शिक्षक आज भी बीएड, एलटी या बीएलएड पाठ्यक्रमांे को उत्तीर्ण कर आ रहे हैं, जहां कागज के चार्ट, थर्माकोल के मॉडल या बेकार पड़ी माचिस, आइसक्रीम की डंडी से कुछ बना कर बच्चों को विषय समझाने की प्रक्रिया से गुणवत्ता का निर्धारण होता है।


एक मोटा अनुमान है कि अभी हमें ऐसे कोई साढ़े छह लाख शिक्षक चाहिए जो कि सूचना-विस्फोट के युग में तेजी से किशोर हो रहे बच्चों में शिक्षा की उदासी दूर कर, नए तरीके से, नई दुनिया की समझ विकसित करने में सहायक हों। यह भी कटु सत्य है कि अभी इस तरह का कोई पाठ्यक्रम शिक्षकों के लिए ही नहीं है, तो बच्चों की बात कौन करे। बच्चे का अपना विस्तारित अनुभव जगत और उसके ज्ञान का यहां न तो कोई अर्थ है न ही कद्र।


ऐसे में डिजिटल साक्षरता के उद्देश्य से किए गए कुछ प्रयोग बच्चों को कुछ नया करने के उत्साह में स्कूल की ओर खींच लाएंगे। जरूरत है युद्ध स्तर पर डिजिटल शिक्षण की सामग्री तैयार करने, शिक्षकों को इस नई प्रणाली के लिए तैयार करने और बच्चों तक डिजिटल प्लेटफार्म मुहैया करवाने की। इसमें निजी निवेश भी बड़ी भूमिका निभा सकता है।

(शिक्षा मामलों के जानकार)

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