जेएनएन, नई दिल्ली। लोजपा अध्यक्ष राम विलास पासवान भले ही अब हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनके जीवन में एक वक्त ऐसा भी आया था जब उन्हें संसदीय लोकतंत्र पर बहुत भरोसा नहीं था। बजाय इसके उनके मन में समाज के दबे और पिछड़ों को न्याय दिलाने के लिए नक्सलवाद के प्रति आकर्षण बढ़ने लगा था। यह आकर्षण इतना ताकतवर था कि पहले ही चुनाव में जीतने के बावजूद संसदीय लोकतंत्र में मन नहीं रम रहा था। भला हो उस जेपी आंदोलन का जिसके सर्वधर्म और सर्वजातीय स्वरूप ने उनके अंदर चल रहे द्वंद को बाहर निकाल फेंका और फिर कभी लोकतंत्र से विचलित नहीं होने दिया।
विभिन्न अनुभवों से भरा रहा जीवन
राम विलास पासवान का जीवन विभिन्न अनुभवों से भरा रहा। चार नदियों से घिरे दलितों के गांव की ज्यादातर उपजाऊ जमीन बड़ी जातियों के लोगों के कब्जे में थी, जो यहां खेती करने और काटने आते थे। ऐसा नहीं था कि पासवान को मूलभूत जरूरतों के लिए संघर्ष करना पड़ा था लेकिन आसपास ऐसे हालात देखने को खूब थे। पिताजी के मन में बेटे को पढ़ाने की ललक ऐसी कि उसके लिए कुछ भी करने को तैयार। पहला हर्फ गांव के दरोगा चाचा के मदरसे में सीखा।
तीन महीने बाद ही तेज धार वाली नदी के बहाव में मदरसा डूब गया। फिर दो नदी पार कर रोजाना कई किमी दूर के स्कूल से थोड़ा पढ़ना लिखना सीख गये। जल्दी ही शहर के हरिजन छात्रवास तक पहुंच बनी, फिर तो वजीफे की छोटी राशि से दूर तक का रास्ता तय कर लिया। पढ़ाई होती गई और आगे बढ़ने का मन भी बढ़ता गया। एक अड़चन जरूर आई, हॉस्टल में रहते हुए आंखों की रोशनी कम होने लगी। डॉक्टर को दिखाया तो लालटेन की रोशनी में पढ़ने को मना कर दिया। तब पासवान की दूसरी शक्ति जाग्रत हुई। श्रवण व स्मरण शक्ति कई गुना बढ़ गई। वह क्लास में बैठते और एकाग्रता से सुनते, वहीं याद भी करते जाते।
होस्टल में रहते हुए फिल्मों का चस्का
हॉस्टल में रहते हुए फिल्मों का चस्का भी खूब लगा। लिहाजा घर से आए अनाज के कुछ हिस्से को सामने के दुकानदार के पास बेचकर फिल्म का शौक भी पूरा करने लगे। खैर पढ़ाई पूरी होने लगी तो घर से नौकरी का दबाव भी बढ़ने लगा। दरोगा बनने की परीक्षा दी पर पास न हो सके। लेकिन कुछ ही दिन बाद डीएसपी की परीक्षा में पास हो गए। घर में खुशी का माहौल था लेकिन पासवान के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था।
कांग्रेस के खिलाफ टिकट मिला और चुनाव जीते
पासवान के गृह जिला खगड़िया के अलौली विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव होना था और वह घर जाने की बजाय पहुंच गए टिकट मांगने सोशलिस्ट पार्टी के दफ्तर। उस वक्त कांग्रेस के खिलाफ लड़ने के लिए कम ही लोग तैयार हुआ करते थे। सो टिकट मिल भी गया और वे जीत भी गए। पिताजी का दबाव पुलिस अफसर बनने पर था लेकिन दोस्तों ने कहा- सर्वेंट बनना है या गवर्नमेंट, ख़ुद तय करो। नतीजा सामने है। लंबी राजनीतिक यात्र रही। कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
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